“वेब दुनिया” में जॉनी वाकर की आत्म-कथा पढ़कर एक बहुत पुरानी बात याद आ गयी. वही बताना चाहता हूं. हमारे फ़िल्म उद्योग में ज़िन्दगी में बहुत ही ज़्यादा उतार चढ़ाव भोगने पड़ते हैं, दूसरे क्षेत्रों से कहीं अधिक. हर फ़िल्म एक अग्नि-परीक्षा होती है. विशेष रूप से तकनीशियनों के लिये. कलाकारों को तो एक साथ कई फ़िल्में करने को मिल जाती हैं तो गणित के सिद्धान्त से उनको law of averages के अनुसार फ़िल्में फिर भी मिलती रह्ती हैं , मगर लेखक या निर्देशक की पह्ली फ़िल्म न चली तो फिर उबरना बड़ा मुश्किल हो जाता है.
जिनकी बात मैं बताने जा रहा हूं वह हमारे एक अज़ीज़ थे, जिन्हें मैं भाई साहब कहता था. मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े थे. कश्मीरी पंडित थे. कभी एक नामी स्टूडियो में एक मशहूर निर्देशक के सहायक रह चुके थे. साहित्य और संगीत के रसिक थे. अच्छे खाने के शौकीन थे. तकनीकी लिहाज़ से सुयोग्य भी थे. उनको एक फ़िल्म के निर्देशन का काम मिला. फ़िल्म बनी भी और रिलीज़ भी हुई पर चली नहीं. मैंने देखी नहीं थी इसलिये कह नहीं सकता कि वह कैसी बनी थी और क्यों नहीं चली. उससमय तक मैं उनसे नहीं मिला था. ख़ैर. फ़िल्म न चली तो भाई साहब पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. उस समय तक उनका पुराना स्टूडियो बन्द हो चुका था. वैसे भी अब सहायक का काम कर नहीं सकते थे. लिखने के काम की कोशिश की तो वह भी न मिली. घर में माँ थीं, पत्नी थी, तीन बच्चे थे. जमा पूँजी भी कुछ न थी. और होती भी तो कितने दिन चलती? ऐसे में एक सज्जन ने उनके
सामने एक प्रस्ताव रखा. उन दिनों नामी हस्तियों पर दो-दो रीलों की फ़िल्में बनाने का एक चलन हो गया था. ये फ़िल्में किसी कमज़ोर फ़िल्म के साथ added attraction के तौर पर दिखाई जाती थीं. प्रस्ताव यह था कि भाई साहब जॉनी वाकर पर एक ऐसी ही टू-रीलर बना दें. भाई साहब जॉनी को थोड़ा पह्चानते थे. प्रस्ताव लेकर जॉनी भाई के पास पहुँच गये. जॉनी ने आदर से बैठाया, चाय नाश्ता कराया. मगर प्रस्ताव सुनकर इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि एक तो वह इस तरह के प्रचार में यक़ीन नहीं करते. और दूसरे यह कि ऐसा ही प्रस्ताव लेकर उनके इन्दौर के पुराने मकान मालिक आये थे, जिनके उन पर बड़े एहसान भी थे, और जॉनी ने उनको भी मना कर दिया था. अब अगर वह भाई साहब का प्रस्ताव मान लेते हैं तो वह मकान मालिक बन्दा उन्के बारे में क्या सोचेगा? निराश भाई साहब उठने लगे, तो जॉनी ने हाथ पकड़ कर बिठा लिया और कहा –
“मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूं. आप यह बताइये यह फ़िल्म बना कर आपको क्या मिल जाता?”
“यही कोई ढाई हज़ार मिल जाते.”
“तो आप एक काम करिये. आप मुझसे ढाई हज़ार रुपये ले जाइये और फ़िलहाल काम चलाइये. और जब सहूलियत हो जाये तो वापस कर दीजियेगा.” जॉनी ने कहा.
भाई साहब ने इनकार कर दिया. जॉनी ने फिर पूछा- “अच्छा आपका माहवार घर ख़र्च क्या आता होगा?”
“यही कोई ६ सौ रुपये.”
जॉनी ने कहा – “ तो आप ऐसा कीजिये, आप हर महीने मुझसे यह रक़म ले जाया करें और जब आपका आमदनी का कोई ज़रिया बन जाये तब वापस कर दीजियेगा.” और बिना जवाब का इन्तिज़ार किये, अन्दर गये और सात सौ रुपये लाकर भाई साहब के हाथों में रख दिये. भाई साहब “शुक्रिया” के सिवा और कुछ न कह सके, क्योंकि गला भर आया था. आँखों में आँसू छलक आये थे.
इसके बाद छ्ह महीने तक जॉनी वाकर भाई साहब को बुलवा बुलवा कर यह रक़म देते रहे. यही नहीं, जब भी भाई साहब जाते तो उनकी पसन्द की कोई न कोई चीज़ भी खिलाते. उसके बाद भाई साहब ने एक नया काम शुरू कर दिया और जाकर जॉनी को ख़ुशख़बरी देते हुये कहा कि अब वो रुपये नहीं लेंगे, और जल्द ही सारी रक़म वापस कर जायेंगे. जॉनी ने भाई साहब को मुबारकबाद कहा, और फिर बोले – काम तो आपने इसी महीने शुरू किया है, तो आमदनी तो आपको अगले माह से ही होगी, इसलिये ये रुपये तो आप इस माह भी ले जाइये. और सात सौ रुपये लाकर दे दिये.
कुछ दिनों बाद भाई साहब, उनचास सौ रुपये लेकर जॉनी के पास गये. मगर जॉनी वाकर ने कहा-“देखिये, आप मुझे जानते थे, इसलिये ज़रूरत के वक्त मेरे पास पहुँच सके थे. मगर कोई ज़रूरतमन्द ऐसा भी हो सकता है, जो मुझ तक नहीं पहुँच सकेगा, मगर आपको जानता होगा और आपके पास पहुँच सकता है. आप यह रुपये मेरी अमानत के तौर पर अपने पास रखिये और ऐसे ज़रूरतमन्द की मदद कर दीजियेगा.”
मैं नहीं समझता कि इसके बाद इसपर किसी टिप्पणी की ज़रूरत है. और अपने अज़ीज़ भाई साहब का नाम ज़ाहिर करना भी मैं मुनसिब नहीं समझता. यह क़िस्सा ख़ुद भाई साहब ने ही मुझे सुनाया था.
Friday, January 11, 2008
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