Tuesday, May 20, 2008

भोजपुरी सिनेमा सम्मान-२००८ :एक शुरुआत

आज एक अर्से बाद कुछ लिखने बैठा हूं. लिखने को तो बहुत कुछ था, कई बातें थीं, कई विचार थे, पर शारीरिक अस्वस्थता के कारण बैठ नहीं पा रहा था. अब सब कुछ लिखूंगा. लेकिन आज पहले कुछ विशेष लिखने जा रहा हूं.
पिछ्ले सप्ताह के कई दिन भोजपुरी फ़िल्में देखने का अवसर मिला. अवसर यों मिला कि ई टीवी –
यू.पी.-बिहार की ओर से एक बहुत बड़ा आयोजन किया जा रहा है – भोजपुरी सिनेमा सम्मान –
२००८, और उसके लिये श्रेष्ठता पुरस्कारों के लिये फ़िल्मों का चयन करने के वास्ते, जिस जूरी को
मनोनीत किया गया था उसका एक सदस्य मैं भी था। अन्य सदस्यों में जाने माने कैमरामैन और फ़िल्म निर्देशक लॉरेन्स डिसूज़ा, कम्प्लीट सिनेमा नामक अंगरेज़ी फ़िल्म ट्रेड मैगज़ीन के वरिष्ठ पत्रकार मोहन जी, अभिनेत्री साधना सिंह एवं कानपुर के एक सम्माननीय भाषविद् पंडित रामचन्द्र दुबे थे.
भोजपुरी सिनेमा का वास्तव में यह तीसरा दौर चल रहा है. पहला दौर शुरू हुआ था, सन-१९६१ में, स्व. बाबू विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी के साहसिक प्रयास “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो” के सफल निर्माण के साथ. उसकी सफलता के बाद तो भोजपुरी फ़िल्मों की एक लहर चल पड़ी थी. पर कुछ ही वर्षों में वह लहर थम गई. कारणों के विश्लेषण में मैं यहां नहीं जाना चाहता. दूसरा दौर शुरू हुआ सन १९७७ में फ़िल्म “दंगल” से. इस दौर में भी कई अच्छी अच्छी और सफल फ़िल्में बनीं और चलीं, पर यह दौर भी कुछ समय में समाप्त हो गया. किन्तु अब यह तीसरा दौर जो शुरू हुआ है, उसने एक स्थायी फ़िल्म उद्योग के रूप में अपने को स्थापित कर लिया है. उनका प्रचार-प्रसार बहुत व्यापक हो गया है. तमाम नये नये बाज़ार मिल गये हैं. अच्छे व्यवसाय के अवसर मिल गये हैं. और व्यावसायिक हिन्दी फ़िल्मों में नितान्त बेगानी सी मल्टीप्लेक्स कल्चर और कॉर्पोरेट
विनिवेश के आजाने से हिन्दी फ़िल्मों का स्वरूप ही बदलने लगा है. ऐसे में आंचलिक फ़िल्मों के लिये स्वाभविक रूप से एक जगह बन गई है, जहां साधारण दर्शक अपनी संस्कृति, अपने परिवेश,
अपने जीवन से तादात्म्य स्थापित कर सकता है. इसी कारण भोजपुरी फ़िल्मों को अपनी जगह बना
लेने में सफलता मिल रही है. यह एक अच्छा लक्षण है, स्वस्थ लक्षण है. आज तमाम भोजपुरी फ़िल्में बन रही हैं, चल रही हैं. ऐसा भी नहीं है कि सभी फ़िल्में सफल हो रही हों, पर प्रयास तो जारी है. कुछ कमियां भी नज़र आ रही हैं. ऐसे में अगर अच्छे प्रयासों को प्रोत्साहन मिले, सम्मान मिले तो निश्चित रूप से बनाने वालों का हौसला बढ़ेगा, quantity के बजाय quality पर भी ध्यान दिया जाने लगेगा. और इसीलिये इस दिशा में ETV का यह आयोजन पहला आयोजन है और एक सराहनीय और स्वागत योग्य आयोजन है.

इस आयोजन में पुरस्कृत करने के लिये हमने २० फ़िल्में देखीं. इन फ़िल्मों की गुणवत्ता या अच्छाई बुराई की चर्चा करना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है. पुरस्कारों के लिये चयन करते समय हमने देखी हुई फ़िल्मों की व्यावसायिक सफलता असफलता पर ध्यान देने के बजाय उनकी गुणवत्ता, उनके नैतिक
और सामाजिक मूल्यों, उनकी प्रभावोत्पादकता को आंकने का प्रयास ही किया है. और उनके हर
पक्ष पर अत्यन्त सूक्ष्मता से विचार करके, काफ़ी वादविवाद कर के, एक मत हो कर अपना निर्णय ई टीवी के संचालकों के हवाले कर दिया है. इस काम में हम कितना सफल हुये हैं यह तो दर्शक और जन साधारण ही देखेंगे, समझेंगे. किन्तु मेरा विश्वास है कि हमारा निर्णय जनता जनार्दन का मनःपूत होगा. अब मैं केवल सम्मान समारोह के पुरस्कारों के स्वरूप के बारे में कुछ बता देना चाहता हूं. वैसे तो ई टीवी वाले व्यापक प्रचार करेंगे ही- अपने चैनलों तथा अन्य माध्यमों द्वारा भी. मैं थोड़ी जानकारी दे देना चाहता हूं.
यह पुरस्कार दो वर्गों में दिये जायेंगे. पहले वर्ग में जूरी द्वारा श्रेष्ठता के लिये चयनित २० पुरस्कार
हैं. जो अभी गोपनीय ही रखे जायेंगे और जिनकी घोषणा आयोजित समारोह के समय ही की जायेगी. दूसरा वर्ग लोकप्रियता में सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों का है, जिसके हर पुरस्कार के लिये जूरी ने ३-३ नामांकन किये हैं. इस वर्ग में नौ पुरस्कार हैं. और उनमें से सर्वश्रेष्ठ को दर्शकों और जन साधारण के मतदान द्वारा चुना जायेगा. मतदान के लिये ई टीवी द्वारा एक व्यापक अभियान चलाय जायेगा, ताकि अधिक से अधिक लोग इसमें भाग ले सकें.
समारोह का आयोजन जून,२००८ के प्रथमार्ध में (शायद ८ जून को) वाराणसी में किया जायेगा.
तब तक मुझे यह जानने की उत्सुकता बनी रहेगी कि दर्शक गण और जनसाधारण हमारे निर्णय से कितना सहमत होते हैं?
अन्त में केवल एक बात कहना चाहता हूं कि इस आयोजन से प्रोत्साहित होकर भोजपुरी सिनेमा
और भी प्रगति करे, अधिक से अधिक अच्छी फ़िल्में बनें और उनमें हमारी आंचलिक संस्कृति की झलक देखने को मिले और और हिन्दी फ़िल्मों से प्राय: लुप्त हो रही साहित्यिकता पनपे और बढ़े.
यही मेरी आन्तरिक कामना है.

Friday, January 11, 2008

जॉनीवाकर - एक अजाना व्यक्तित्व

“वेब दुनिया” में जॉनी वाकर की आत्म-कथा पढ़कर एक बहुत पुरानी बात याद आ गयी. वही बताना चाहता हूं. हमारे फ़िल्म उद्योग में ज़िन्दगी में बहुत ही ज़्यादा उतार चढ़ाव भोगने पड़ते हैं, दूसरे क्षेत्रों से कहीं अधिक. हर फ़िल्म एक अग्नि-परीक्षा होती है. विशेष रूप से तकनीशियनों के लिये. कलाकारों को तो एक साथ कई फ़िल्में करने को मिल जाती हैं तो गणित के सिद्धान्त से उनको law of averages के अनुसार फ़िल्में फिर भी मिलती रह्ती हैं , मगर लेखक या निर्देशक की पह्ली फ़िल्म न चली तो फिर उबरना बड़ा मुश्किल हो जाता है.
जिनकी बात मैं बताने जा रहा हूं वह हमारे एक अज़ीज़ थे, जिन्हें मैं भाई साहब कहता था. मुझसे उम्र में काफ़ी बड़े थे. कश्मीरी पंडित थे. कभी एक नामी स्टूडियो में एक मशहूर निर्देशक के सहायक रह चुके थे. साहित्य और संगीत के रसिक थे. अच्छे खाने के शौकीन थे. तकनीकी लिहाज़ से सुयोग्य भी थे. उनको एक फ़िल्म के निर्देशन का काम मिला. फ़िल्म बनी भी और रिलीज़ भी हुई पर चली नहीं. मैंने देखी नहीं थी इसलिये कह नहीं सकता कि वह कैसी बनी थी और क्यों नहीं चली. उससमय तक मैं उनसे नहीं मिला था. ख़ैर. फ़िल्म न चली तो भाई साहब पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. उस समय तक उनका पुराना स्टूडियो बन्द हो चुका था. वैसे भी अब सहायक का काम कर नहीं सकते थे. लिखने के काम की कोशिश की तो वह भी न मिली. घर में माँ थीं, पत्नी थी, तीन बच्चे थे. जमा पूँजी भी कुछ न थी. और होती भी तो कितने दिन चलती? ऐसे में एक सज्जन ने उनके
सामने एक प्रस्ताव रखा. उन दिनों नामी हस्तियों पर दो-दो रीलों की फ़िल्में बनाने का एक चलन हो गया था. ये फ़िल्में किसी कमज़ोर फ़िल्म के साथ added attraction के तौर पर दिखाई जाती थीं. प्रस्ताव यह था कि भाई साहब जॉनी वाकर पर एक ऐसी ही टू-रीलर बना दें. भाई साहब जॉनी को थोड़ा पह्चानते थे. प्रस्ताव लेकर जॉनी भाई के पास पहुँच गये. जॉनी ने आदर से बैठाया, चाय नाश्ता कराया. मगर प्रस्ताव सुनकर इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि एक तो वह इस तरह के प्रचार में यक़ीन नहीं करते. और दूसरे यह कि ऐसा ही प्रस्ताव लेकर उनके इन्दौर के पुराने मकान मालिक आये थे, जिनके उन पर बड़े एहसान भी थे, और जॉनी ने उनको भी मना कर दिया था. अब अगर वह भाई साहब का प्रस्ताव मान लेते हैं तो वह मकान मालिक बन्दा उन्के बारे में क्या सोचेगा? निराश भाई साहब उठने लगे, तो जॉनी ने हाथ पकड़ कर बिठा लिया और कहा –
“मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूं. आप यह बताइये यह फ़िल्म बना कर आपको क्या मिल जाता?”
“यही कोई ढाई हज़ार मिल जाते.”
“तो आप एक काम करिये. आप मुझसे ढाई हज़ार रुपये ले जाइये और फ़िलहाल काम चलाइये. और जब सहूलियत हो जाये तो वापस कर दीजियेगा.” जॉनी ने कहा.
भाई साहब ने इनकार कर दिया. जॉनी ने फिर पूछा- “अच्छा आपका माहवार घर ख़र्च क्या आता होगा?”
“यही कोई ६ सौ रुपये.”
जॉनी ने कहा – “ तो आप ऐसा कीजिये, आप हर महीने मुझसे यह रक़म ले जाया करें और जब आपका आमदनी का कोई ज़रिया बन जाये तब वापस कर दीजियेगा.” और बिना जवाब का इन्तिज़ार किये, अन्दर गये और सात सौ रुपये लाकर भाई साहब के हाथों में रख दिये. भाई साहब “शुक्रिया” के सिवा और कुछ न कह सके, क्योंकि गला भर आया था. आँखों में आँसू छलक आये थे.
इसके बाद छ्ह महीने तक जॉनी वाकर भाई साहब को बुलवा बुलवा कर यह रक़म देते रहे. यही नहीं, जब भी भाई साहब जाते तो उनकी पसन्द की कोई न कोई चीज़ भी खिलाते. उसके बाद भाई साहब ने एक नया काम शुरू कर दिया और जाकर जॉनी को ख़ुशख़बरी देते हुये कहा कि अब वो रुपये नहीं लेंगे, और जल्द ही सारी रक़म वापस कर जायेंगे. जॉनी ने भाई साहब को मुबारकबाद कहा, और फिर बोले – काम तो आपने इसी महीने शुरू किया है, तो आमदनी तो आपको अगले माह से ही होगी, इसलिये ये रुपये तो आप इस माह भी ले जाइये. और सात सौ रुपये लाकर दे दिये.
कुछ दिनों बाद भाई साहब, उनचास सौ रुपये लेकर जॉनी के पास गये. मगर जॉनी वाकर ने कहा-“देखिये, आप मुझे जानते थे, इसलिये ज़रूरत के वक्त मेरे पास पहुँच सके थे. मगर कोई ज़रूरतमन्द ऐसा भी हो सकता है, जो मुझ तक नहीं पहुँच सकेगा, मगर आपको जानता होगा और आपके पास पहुँच सकता है. आप यह रुपये मेरी अमानत के तौर पर अपने पास रखिये और ऐसे ज़रूरतमन्द की मदद कर दीजियेगा.”

मैं नहीं समझता कि इसके बाद इसपर किसी टिप्पणी की ज़रूरत है. और अपने अज़ीज़ भाई साहब का नाम ज़ाहिर करना भी मैं मुनसिब नहीं समझता. यह क़िस्सा ख़ुद भाई साहब ने ही मुझे सुनाया था.