Thursday, December 31, 2009

शुभ नव वर्ष -2010

प्रथम दिवस का प्रथम प्रभात
कोमल किरणों की बरसात
नव आशा नव प्राण जगाकर
जीवन के रंग करें उजागर
नितप्रति बढे हर्ष - उत्कर्ष
मंगलमय हो शुभ नववर्ष.

Saturday, October 17, 2009

शुभ दीपावली -2009

प्रिय सुधी पाठकों के प्रति -
दीप जलते रहें, फूल खिलते रहें ।
दिन बहुरते रहें। स्वप्न पलते रहें।
आप जैसे स्वजन सबको मिलते रहें।
हम प्रगति पंथ पर साथ चलते रहें।
धान्य- धन-संपदा से भरी हो धरा।
शान्ति-सुख-स्वस्ति व्यापे जगत में सदा।
मन में सद्भावना हो सभी के लिए।
और क्या चाहिए जिंदगी के लिए।
पावन दीप पर्व पर सप्रेम अभिनन्दन ,
एवं हार्दिक शुभेच्छा .

Saturday, September 19, 2009

एक अच्छी ख़बर ......

१७ सितम्बर के दैनिक ’हमारा महानगर‘ में एक बड़ा अच्छा सम्वाद पढ़ने को मिला - अब अमिताभ का कवि सम्मेलन. समाचार था कि गीतकार प्रसून जोशी के सुझाव पर सहमत होकर अमिताभ बच्चन दिल्ली और इलाहाबाद में कवि सम्मेलनों का आयोजन करने की बात सोच रहे हैं.और आशा की जा सकती है कि इस सोचविचार का निष्कर्ष सकारात्मक ही होगा. हिन्दी जगत में कवि सम्मेलनों की एक बड़ी अच्छी परम्परा रही है. मंचों पर अपनी ओजभरी और सरस कविताओं से अनेक दिग्गज कवि श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते रहे हैं और प्रेरणा देते आये हैं. स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में कवि सम्मेलनों ने जन साधारण को बहुत उद्बुद्ध किया है.जिनमें दिनकर, श्याम नारायण पांडेय, बालकृष्ण शर्मा नवीन, बच्चन, छैलबिहारी दीक्षित कंटक, गोपालसिंह नेपाली, बलबीर सिंह रंग से आदिसे लेकर नीरज, वीरेन्द्र मिश्र, सोम ठाकुर, रमानाथ अवस्थी इत्यादि कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं. हास्य और व्यंग्य की विधाओं में भी एक से एक धुरंधर कवि मंचों की जान रहे हैं. बेढब बनारसी, काका हाथरसी, शैल चतुर्वेदी, प्रदीप चौबे, गोपालप्रसाद व्यास, अशोक चक्रधर, माणिक वर्मा, ओमप्रकाश आदित्य, गोविन्द व्यास जैसे कवियों ने एक ओर जहाँ श्रोताओं को गुदगुदाया और हँसाया है वहीं कुछ सोचने समझने को भी उकसाया है.
ऐसा नहीं है कि अब कवि सम्मेलन बिल्कुल नहीं होते. परन्तु वे सीमित और सीमाबद्ध होते जा रहे हैं. श्रोताओं की संख्या घटती जा रही है. ऐसे में अगर अमिताभ कवि सम्मेलनों का आयोजन करें तो निश्चित रूप से वे स्तरीय होंगे और हिन्दी काव्य प्रेमियों को आनन्द देंगे. एक समय तक दूरदर्शन पर अच्छे कवि सम्मेलनों का प्रसारण होता था. पर अब वे प्राय: बन्द ही हो गये हैं. कुछ गोष्ठियां अवश्य होती हैं, परन्तु अल्पकालिक और ऐसे समय पर जब हम देख नहीं पाते. शायद अब ये आयोजन इसलिये नहीं होते अधिकांश कवि प्रतिष्ठान विरोधी कवितायें सुनाने लगे थे. और सत्ता को अपनी आलोचना सुनना अच्छा नहीं लगता.
आज टेलिविज़न जैसा सशक्त माध्यम हमारे पास है. प्रसारित होने पर ये एक साथ पूरे देश के दर्शक-श्रोताओं तक पहुँच सकते हैं. ई-टीवी उर्दू और डी डी उर्दू चैनलों पर हर सप्ताह नियमित रूप से मुशायरे प्रसारित हो रहे हैं. तो हिन्दी में क्यों नहीं हो सकते? दूरदर्शन न भी करे तो सहारा, ई-टीवी या महुआ तो प्रसारित कर ही सकते हैं. हिन्दी काव्य रसिक इन आयोजनों का अवश्य स्वागत करेंगे, और अमिताभ बच्चन का आभार मानेंगे.
अन्त में- कुछ कवि सम्मेलनों की रोचक बातें:
एक बार इलाहाबाद के एक कवि सम्मेलन का संचालन श्रीमती महादेवी वर्मा कर रही थीं. उन्होंने जब बच्चन जी को कविता पाठ के लिये आमंत्रित किया तो देखा वे मंच पर नहीं थे. महादेवी जी ने पुन: उनको पुकारा. और बच्चन जी हाल के प्रवेशद्वार से कविता पढ़ते हुये आगे बढे़. कविता थी "इसीलिये खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो.‘ सारा हाल तालियों से गूँज उठा.

एक कवि सम्मेलन में श्यामनारायण पांडे ने हल्दीघाटी का पाठ किया. उसकी कुछ पंक्तियां यों थीं -
राणा ने पूछा मान कहाँ? भामा ने पूछा मान कहाँ?
सब दरबारी गण बोल उठे - है मान कहाँ? है मान कहाँ.
उनके तुरन्त बाद आये बेढब बनारसी, और उन्होंने पढ़ना शुरू किया-
वक्ता ने पूछा पान कहाँ? श्रोता ने पूछा पान कहाँ?
तब प्रेसीडेन्ट भी बोल उठे, है पान कहाँ ? है पान कहाँ?

Tuesday, September 15, 2009

साँप भी मरा और ------

घटना सुनी सुनाई है. पता नहीं सच है या झूठ. किन्तु अगर सच है तो वाह कमाल है. और अगर झूठ है तो भी एक तरह का सत्य तो कहती ही है इसलिये आधुनिक नीतिबोध की अभिनव मिसाल है.
एक स्कूल मास्टर थे. रहने वाले तो अपने ही प्रदेश की राजधानी के थे, परन्तु पोस्टिन्ग किसी दूर के गाँव में थी. जब तक माता-पिता जीवित थे तब तक कोई समस्या नहीं थी. परिवार में पत्नी और बच्चे थे जो माता-पिताके साथ रहते थे. समस्या हो गयी माता-पिता के देहान्त के बाद. इसलिये चाह्ते थे कि इस बार उनका तबादला अपने शहर में हो जाये. सो शिक्षा विभाग के चक्कर लगाने लगे. विभाग के अधिकारियों से मिलते अनुनय विनय करते, पर कोई सुनवाई नहीं हुई. डिप्टी डाइरेक्टर के पास जाकर रोये, गिड़गिड़ाये, मगर मायूसी ही हाथ लगी.
ऐसे में एक दिन पिताजी के पूर्व परिचित एक मित्र से मुलाक़ात हो गयी. उनको परेशानी बताई. वे ज़रा सामाजिक कार्यकर्ता टाइप के आदमी थे. सारा हाल सुनकर बोले तुम अभी चल सकते हो मेरे साथ?
मास्टर साहब ने पूछा, कहाँ?
सवाल मत करो, फ़ुर्सत है तो चलो, मैं कोई रास्ता निकालता हूँ. मास्टर साहब राज़ी हो गये. और वे सज्जन उन्हें लेकर सीधे प्रदेश के मुख्य मंत्री के पास ले गये. उनकी समस्या बताई. मास्टर साहब तो घबरा ही रहे थे, पर जब मुख्य मंत्री महोदय ने मुस्कुरा कर उनकी पीठ थपथपाई, तो कुछ आश्वस्त हुये. मुख्यमंत्री जी ने मास्टर साहब को अगले दिन सुबह अपने सरकारी आवास पर आने को कहा. उसके बाद उन्होंने शिक्षा विभाग के अधिकारियों के बारे में ज़रूरी जानकारी हासिल कर ली.
दूसरे दिन मास्टर साहब नियत समय पर पहुँच गये. मास्टर साहब के आते ही, मुख्यमंत्री जी ने उनको चाय नाश्ता कराया. पर तबादले के बारे में कुछ नहीं कहा. फिर अन्दर चले गये. मास्टर साहब अस्मंजस मेंबैठे रहे. थोड़ी देर बाद मुख्यमंत्री जी उनको अन्दर के कमरे में ले गये और वहां पर बिछा हुआ एक कार्पेट दिखाकर बोले - इसे उठा कर ले जाइये, और डिप्टी साहब को उनके घर पर जाकर भेंट कर आइये. मास्टर साहब हिचकिचा कर बोले - इतना क़ीमती कार्पेट? मैं यह .....
मुख्यमंत्री जी बोले, जो मैं कहता हूँ, वह करिये. डिप्टी साहब नया बंगला बनवा रहे हैं, मालूम है आपको? कहियेगा, नख़ास में देखा तो अच्छा लगा.और सस्ते में ही मिल गया. इसलिये आपके लिये ले आया. शायद आपको पसन्द आ जाये.
मास्टर साहब ने वही किया. कार्पेट देख कर डिप्टी साहब की बाँछें खिल गईं. बहुत ख़ुश हो कर शुक्रिया अदा किया. और उनके तबादले के बारे में आश्वासन भी दे दिया. अगले सप्ताह ही मास्टर साहब का तबादला हो गया.
कुछ समय बीत गया, तब एक दिन मुख्यमंत्री जी, शिक्षा विभाग में घूमते घूमते डिप्टी साहब के रूबरू हुये. उनको अभिवादन का जवाब देते हुये, हालचाल पूछा. फिर बोले, आप अपना बंगला बनवा रहे हैं, ना? डिप्टी साहब ने जवाब दिया, बस सर, रिटायरमेंट के बाद सिर छुपाने के लिये, एक छत बनवा रहा हूँ. मुख्यमंत्री जी ने कहा, बहुत अच्छा है. मैं तो यही चाहता हूँ कि हमारे सब अधिकारी अच्छी तरह रहें. ख़ुश रहें. खै़र, गृहप्रवेश पर हमको भी बुलाइयेगा ज़रूर. डिप्टी साहब ने रस्मी तौर पर कह दिया-
ज़रूर बताऊँगा, सर.
उसके बाद मुख्यमंत्री जी अक्सर डिप्टी साहब के सामने आ जाते, और बंगले के बारे में पूछ्ते, तथा गृह-प्रवेश पर बुलाने को ज़रूर कहते. लामुहाला, डिप्टी साहब ने गृह-प्रवेश पर मुख्यमंत्री जी को निमंत्रण दिया. मुख्यमंत्री जी ने पूरा बंगला घूम घूम कर देखा और फिर एक कमरे में बिछे हुये कार्पेट को देख कर उसकी बड़ी तारीफ़ करने लगे. डिप्टी साहब ने कहा, नख़ास में सस्ते में मिल गया था सो ले लिया.
मुख्यमंत्री जी बोले, बहुत अच्छा किया. आपकी पसन्द की दाद देनी पड़ेगी. बड़ाही ख़ूबसूरत पीस है.
उसके बाद मुख्यमंत्री जी जितनी देर वहाँ रहे, कई बार कार्पेट की तारीफ़ की. डिप्टी साहब थोड़ा घबरा गये. बंगला तो उन्होंने अपनी हैसियत से बढ़कर ही बनवाया था. समझ गये कि मुख्यमंत्री जी की नज़र में वह कार्पेट चढ़ गया है. सो दूसरे ही दिन डिप्टी साहब वह कार्पेट मुख्यमंत्री जी को भेंट कर आये. इस तरह कार्पेट जहाँ का तहाँ पहुँच गया.
अब बताएँ, इस कहानी से क्या सबक़ मिलता है? What is the moral of the Story?

Tuesday, July 14, 2009

श्रावण का वह सोमवार

कल श्रावण का पहला सोमवार था.और मुझे याद आ गया ऐसा ही एक श्रावण का सोमवार, जब मैंने बचपन में भाँग खाई थी. मैं शायद आठ साल का था तब. कानपुर में श्रावण के सोमवारों को बारी बारी से चार शिवमन्दिरों मे मेले लगा करते थे. जाजमऊ, नवाबगंज, कल्याणपुर और परमट में. शायद अब भी लगते होंगे. मेरे अभिभावक गौरी शंकर अरोड़ा जिन्हें हम चाचा कहते थे, वह किराना बाज़ार में दलाल थे.
कल्याणपुर में उनके एक आढ़ती जगन्नाथ मुनीम के मालिकों का एक धर्मशाला था. जिस सोमवार को कल्याणपुर के शिवमन्दिर का मेला था, चाचाने हम लोगों को दिन में वहाँ चले जाने को कहा था ,और वह
शाम को आ जानेवाले थे. धर्मशाला में ठहरने की व्यवस्था उन्होंने कर रखी थी. सो दोपहर से पहले ही, मैं अपनी माँ, नानी और छोटी बहन लीला रामलखन मामा के साथ एक इक्के पर बैठ कर वहाँ पहुंच गये. उस समय मेरी उम्र शायद सात आठ साल की रही होगी.
मन्दिर में शिवजी को जल चढ़ाया और धर्मशाले में आकर कुछ फलाहार करके विश्राम किया. सबने उपवास किया हुआ था. शाम होने लगी तो मैं अम्मासे पूछ्कर मेला देखने के लिये निकल पड़ा.
धर्मशाला से बाहर देखा, कुछ लोग बैठे नाश्ता कर रहे थे. और साथ साथ हँस रहे थे. मैं उनको देखने लगा तो उनमें से एक आदमी ने मुझे बरफ़ी का एक टुकड़ा देकर बोला - लेव बच्चा, भोले बाबा का पर्साद लेव. बरफ़ी का रंग कुछ हरा सा था. मैं लेने से हिचकिचा रहा था तो दूसरा व्यक्ति बोला, लै लेव मुन्ना, पर्साद को ना ना करै के चाही. मैंने वह टुकड़ा लेकर माथे से लगाया और खा लिया. फिर एक और व्यक्ति ने एक कुल्हड़ में थोड़ी सी ठंडाई देकर कहा, लेव यहौ पी लेव. ठंडाई मैं जानता था, घर में चाचा भी अक्सर बनाया करते थे. मैंने ठंडाई भी पी ली. और आगे बढ़ गया, मेला देख्नने के लिये. सोच रहा था अगर कोई चीज़ पसन्द आई तो चाचा के आने के बाद उनसे वह चीज़ ले देने को कहूंगा. काफ़ी घूम कर देखा , मगर कुछ ऐसा खा़स नहीं देखा , जो मेरे पास न रहा हो. मैं आगे बढ़ गया. आगे रेल की पटरी थी. मैं दो पटरियों के ठीक बीचोबीच लकड़ी के स्लीपरों पर एक ताल के साथ, लेफ़्ट राइट करता हुआ आगे बढ़ने लगा. ताल पर चलने में बड़ा मज़ा आ रहा था.
थोड़ी दूर ही गया था कि पीछे से रेल की सीटी की आवाज़ सुनाई दी. मैंने मुड़ कर एक बार देखा और फिर आगे चलने लगा. उसके बाद तो सीटी की आवाज़ बार बार आने लगी. मैंने मुड़ कर देख और मन ही मन बुदाया - क्या भों-भों लगा रखी है, इधर उधर इतनी जगह तो पड़ी है, बगल से निकल क्यों नहीं जाता. और फिर आगे बढ़ने लगा. फिर सीटी की आवाज़ बन्द हो गई. मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ.
हुआ यह था कि ट्रेन रुक गई थी, और मुसाफ़िर उतर कर दौड़ते हुये मेरी तरफ़ आरहे थे. कुछ लोगों ने आकर मुझे उठा कर पटरी से बाहर किया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर हुआ क्या. इसी समय चाचा सामने आ गये. और उन्होंने वहीं उसी समय मेरी पिटाई शुरू कर दी. चाचा प्यार तो बहुत करते थे, पर ग़लती करने पर मारते भी बहुत थे. दो चार तमाचे मारने के बाद मेरी निगाहें देख कर वह शाय्द कुछ समझ गये. मुझसे पूछा कि मैंने क्या कुछ खाया था? मैंने बर्फ़ी और ठंडाई की बात बतादी.
वह समझ गये कि मुझे किसी ने भाँग खिला दी है. वह मुझे लेकर धर्मशाले तक आये, मगर वह अजनबी लोग तब तक वहाँ से जा चुके थे.
पर उसदिन मेरी समझ में आगया कि भाँग कितना ख़तरनाक नशा है. उसके बाद ज़िन्दगी में शायद ही कभी भोले बाबा का ऐसा प्रसाद ग्रहण किया हो?
एक नसीहत और मिल गयी, कि अनजान व्यक्तियों की दी हुई कोई चीज़ खाना भी कितना खतरनाक हो सकता है?

Friday, June 12, 2009

कहानी चलती का नाम गाड़ी की

एक हमारे अज़ीज़ हैं लल्लन मियाँ. कई फ़िल्मों में हमारे सहकर्मी रह चुके हैं. अकसर जब उनको कोई नई बात सूझती है तो सवेरे सवेरे फोन कर लेते हैं और कोई सवाल दाग़ देते हैं. ऐसे ही एकदिन पूछ बैठे- चलती का नाम गाड़ी की कहानी किसकी थी? सवाल दिलचस्प था. आज उनके उसी सवाल का जवाब लिख रहा हूँ. क्यॊंकि इस कहानी की भी एक अलग कहानी है.
किशोर कुमार ने एक बंगला फ़िल्म बनाई थी - लूकोचुरी. उसके निर्देशक थे कमल मजूमदार. फ़िल्म को बहुत कामयाबी मिली. तब किशोर ने एक हिन्दी फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया. एस.डी.बर्मन के एक सहकारी थे, सुहृद कर. उन्होंने एक कहानी किशोर को सुनाई. कहानी उनको अच्छी लगी, कहानी में तीनों भाइयों के लिये चरित्र थे, मगर उसमें तीनों तीन भाई न थे. निर्देशन का भार कमल मजूमदार को ही देने की बात थी. कहानी क्या थी, यह मुझे नहीं मालूम. फ़िल्म शुरू होने से पहले ही कमल मजूमदार ने कह दिया कि वह निर्देशन न कर सकेंगे. तब किशोर ने सत्येन दा से बात की. सत्येन दा निर्देशन के लिये तो तैयार हो गये, मगर कहानी उनको नहीं जमी. उनका कहना था, कि सारे लोग जानते हैं कि तीनों अभिनेता भाई हैं, तो फ़िल्म में भी भाई-भाई ही क्यों न हों? और तीनों जैसे हैं वैसे ही चरित्र अदा करें तो फ़िल्म दिलचस्प बन सकती है. आइडिया सबको अच्छा लगा. गाड़ियों के गैरेज का आइडिया पहली कहानी में भी था, उसी गैरेज को केन्द्र बना कर कहानी का ताना बाना बुना गया. उसमें कुछ कुछ अवदान अशोक कुमार का था, कुछ किशोर का और बाकी बुनावट सत्येन दा की. वह इन तीनों भाइयों से बहुत ही अच्छी तरह वाकिफ़ थे, इसलिये सबके चरित्र बहुत ही वास्तविक और स्वाभाविक बन गये. और फ़िल्म शुरू हो गई. पहले फ़िल्म के सम्वाद रमेश पन्त लिखने वाले थे. शुरुवाती शूटिंग के कुछ सीन उन्होंने लिखे भी थे. फिर क्या बात हुई पता नहीं, यह भार मेरे ज़िम्मे आ गया.
फ़िल्म की शूटिंग में जो मज़ा आता था, वह बहुत कम शूटिंगों मे आता है. बिना किसी टेन्शन के बिल्कुल हँसते हँसाते काम हुआ करता था. ब्लैक ऐन्ड व्हाइट फ़िल्मों की शूटिंग मे अपेक्षाकृत अधिक समय लगता था. मगर कोई भी सेट छोड़ कर नहीं जाता था. सम्वादों में भी सेट पर ही चर्चा होती थी और कभी कभी नये सिरे से भी लिखने होते थे. मगर मुझे कोई दिक्क़्त नहीं होती थी, क्योंकि जीते जागते वह चरित्र सामने होते थे.
फ़िल्म के संगीत का भी निस्संदेह उसकी सफलता में बड़ा योगदान था. मजरूह साहब बर्मन दादा और किशोर स्वयं हर गीत को मिल कर सजाते सँवारते थे. फ़िल्म के टाइटिल्स का अनोखा आइडिया भी पूर्णतः किशोर कुमार का था.
अफ़सोस उसका सिक्वेल न बन सका, जैसा कि सत्येन दा ने कुछ कुछ सोचा था, और जिसमें बनाया जाता तो अमित कुमार हीरो होते, गैरेज तो रह्ता ही रह्ता.
मुझे सचमुच गर्व है जिन चार एवरग्रीन और अमर फ़िल्मों के साथ मेरा नाम जुड़ा है, उनमें से चलती का नाम गाड़ी अन्यतम है.

Tuesday, June 2, 2009

वो दिन वो लोग -नर्गिस

नर्गिस का फ़ैन तो मैं उनकी पहली फ़िल्म ’तक़दीर’ से ही था, पर उनके साथ काम करने का सुयोग मिला उनकी आख़िरी फ़िल्म ’रात और दिन’ में. फ़िल्म बनते बनते और रिलीज़ होते होते कई कारणों सात साल लग गये. फ़िल्म शुरू हुई थी सन १९६० में और रिलीज़ हुई १९६७ में. इतने लम्बे समय में उनको क़्ररीब से देखा, जाना और समझा.उन्हीं दिनों के कुछ अनुभव यहां लिखने जा रहाहूं. स्वभाव से इतनी सरल, मृदुभाषी और हंसमुख कि लगता ही नहीं था कि कितनी बड़ी अभिनेत्री हैं. अल्प परिचय में भी अत्यंत आत्मीयता ही झलकती थी उनके व्यवहार में. ’रात और दिन’ उनके घर की ही फ़िल्म थी, परिवार के ही काफ़ी लोग जुड़े हुये थे. शूटिंग पर भी घर के लोग आते जाते रह्ते थे और वो सब उनको बेबी कह कर बुलाते थे. और हम लोग भी उन्हें बेबी जी कह कर ही बुलाने लगे थे - निर्देशक सत्येन दा, कैमरामैन मदन सिन्हा, मैं और अन्य सहकारीगण भी. उन्होंने भी कभी मना नहीं किया. मैडम कहलाना शायद उन्हें स्वयं भी बहुत पसन्द नहीं था. रोज़ जब वह शूटिन्ग के लिये आती थीं, तो गाड़ी से उतर कर पहले सेट पर आती थीं, सब से मिल कर, पहले कौन सा सीन करना है पूछ कर तैयार होने के लिये मेक अप रूम जाती थीं और बस दस बारह मिनट में तैयार होकर सेट पर आ जाती थीं. इतने कम समय में तैयार होकर सेट पर आ जाये, ऐसी कोई हीरोइन तो क्या, कोई हीरो भी मैंने नहीं देखा.
किन्तु एकदिन वह आईं तो सेट के बाहर से ही मुझे बुला भेजा पूछा कि क्या सीन करना है और सीधे मेक अप रूम चली गईं. मैंने ड्राइवर अब्दुल से पूछा क्या बात है, आज मैडम का मूड कुछ बिगड़ा हुआ सा क्यों है? उसने बताया कि सवेरे सवेरे एक हीरोइन के सेक्रेटरी को फट्कार सुना कर आई हैं. मालूम हुआ कि नर्गिस और अन्य कुछ बड़े कलाकारों में एक ऐसी अन्डरस्टैंडिंग है, कि अगर कोई ज़रूरतमन्द इन लोगों में से किसी के पास मदद के लिये आता है तो वह ख़ुद तो अपनी तरफ़ से जो देना होता है, देते ही हैं और एक एक नोट लिख कर बाक़ियों के पास भेज देते हैं. और उस ज़रूरतमन्द का काम बन
जाता है. ऐसे ही कुछ दिन पहले, एक पुरानी चरित्राभिनेत्री अपनी बेटी की शादी के लिये, मदद मांगने नर्गिस के पास आई थी, उन्होने स्वयं जो देन था दिया, और अन्य कई लोगों के लिये चिट्ठी लिख कर दे दी. आज सवेरे वह चरित्राभिनेत्री बेटी की शादी के बाद कुछ मिठाई लेकर शुक्रिया अदा करने आई थी. नर्गिस के पूछ्ने पर उसने बताया कि शादी बहुत अच्छी तरह हो गयी. मदद भी सबने कर दी थी, मगर उक्त सेक्रेटरी ने, उसे उस हीरोइन से मिलने नहीं दिया, जिसके नाम चिट्ठी दी थी. उसने चिट्ठी फाड़कर फेंक दी थी, और बहुत बुरा भला भी कहा था. इसलिये मैडम का मूड ख़राब हो गया था. और
ऐसे मूड में शूटिंग के लिये निकली ही थीं कि आगे मोड़ पर वही सेक्रेटरी साहब खड़े दिखाई दे गये. बस मैडम ने गाड़ी रुकवाई और उतर कर उन सेक्रेटरी साहब पर बरस पड़ीं. बेचारे पब्लिक के सामने शर्मसार होते रहे और माफ़ी मांगते रहे. गालियां तो नर्गिस ऐसी धारा-प्रवाह दे लेती थीं कि तौबा.
बाद में तैयार होकर जब सेट पर आईं तब तक उनका ग़ुस्सा ठंडा हो चुका था. बिल्कुल स्वाभाविक हो चुकी थीं.
यह भी उनकी अभिनय क्षमता की एक बड़ी विशेषता थी, कैसा भी मूड हो, पर कैमरे के सामने आते ही अपने चरित्र में ऐसा ढाल लेती थीं कि बस अपनी मिसाल वह आप ही थीं.
अभिनय में स्वाभाविकता के साथ साथ साज-सिंगार में भी वह स्वाभाविकता और सादगी रखना ही पसन्द करती थीं, जब तक कि चरित्र के लिये बनावट ज़रूरी न हो. इसी सिलसिले में एक दिन उन्होंने घटना सुनाई थी, जो अभी अचानक याद आगयी. बात ए.वी.एम. की फ़िल्म ’चोरी-चोरी’ की है. मद्रास के विजया-वाहुनी स्टूडिओ में फ़िल्म की पहले दिन की शूटिंग थी. नर्गिस अपने लिये निर्धरित मेक-अप रूम में पहुंची तो देखा दो पैडिंग रखे हुए थे, एक वक्ष के लिये, एक नितम्बों के लिये. नर्गिस ने मेक-अप मैन से पूछा - यह किसका है? जवाब मिला- यह आपही के लिये है. नर्गिस ने कहा- ये ले जाओ, मुझे ये सब नहीं पहनना है. मेक-अप मैन ने हाथ जोड़ कर कहा - मैडम, मयप्पन सर ने ऑर्डर किया है, ये आपको पहनने का है. नर्गिस ने कहा - सर को बोलो जाकर, कोई दूसरी हीरोइन बुला लें. मुझे यह फ़िल्म नहीं करनी है. और अन्ततः उन्होंने वह पैडिंग नहीं पहनी.
’रात और दिन’ के बाद उन्होंने काम छोड़ दिया, और पूरी तरह घर गृह्स्थी, बच्चों और समाज सेवा के कामों को समर्पित हो गईं. मगर हम अक्सर, उनके बंगले में ही स्थित ’अजन्ता आर्ट’ के डबिन्ग थियेटर में अपनी अन्य फ़िल्मों की डबिन्ग और साउन्ड इफ़ेक्ट्स रेकार्ड करने जाया करते थे, और उनसे मिल कर ही आते थे. बिना मिले चले आते थे और उनको मालूम हो जाता था तो नाराज़ होती थीं. उनकी वह आत्मीयता कभी नहीं भुलाई जा सकती.
कल पहली जून को उनका जन्मदिन था. वह जीवित होतीं तो कल अस्सी साल की हो गयी होतीं. मगर मेरे मन में आज भी वह उसी रूप में जीवित हैं, जैसा मैने उन्हें देखा और जाना था. और हमेशा ऐसे ही याद करता रहूंगा. श्रद्धा पूर्वक.