Tuesday, June 2, 2009

वो दिन वो लोग -नर्गिस

नर्गिस का फ़ैन तो मैं उनकी पहली फ़िल्म ’तक़दीर’ से ही था, पर उनके साथ काम करने का सुयोग मिला उनकी आख़िरी फ़िल्म ’रात और दिन’ में. फ़िल्म बनते बनते और रिलीज़ होते होते कई कारणों सात साल लग गये. फ़िल्म शुरू हुई थी सन १९६० में और रिलीज़ हुई १९६७ में. इतने लम्बे समय में उनको क़्ररीब से देखा, जाना और समझा.उन्हीं दिनों के कुछ अनुभव यहां लिखने जा रहाहूं. स्वभाव से इतनी सरल, मृदुभाषी और हंसमुख कि लगता ही नहीं था कि कितनी बड़ी अभिनेत्री हैं. अल्प परिचय में भी अत्यंत आत्मीयता ही झलकती थी उनके व्यवहार में. ’रात और दिन’ उनके घर की ही फ़िल्म थी, परिवार के ही काफ़ी लोग जुड़े हुये थे. शूटिंग पर भी घर के लोग आते जाते रह्ते थे और वो सब उनको बेबी कह कर बुलाते थे. और हम लोग भी उन्हें बेबी जी कह कर ही बुलाने लगे थे - निर्देशक सत्येन दा, कैमरामैन मदन सिन्हा, मैं और अन्य सहकारीगण भी. उन्होंने भी कभी मना नहीं किया. मैडम कहलाना शायद उन्हें स्वयं भी बहुत पसन्द नहीं था. रोज़ जब वह शूटिन्ग के लिये आती थीं, तो गाड़ी से उतर कर पहले सेट पर आती थीं, सब से मिल कर, पहले कौन सा सीन करना है पूछ कर तैयार होने के लिये मेक अप रूम जाती थीं और बस दस बारह मिनट में तैयार होकर सेट पर आ जाती थीं. इतने कम समय में तैयार होकर सेट पर आ जाये, ऐसी कोई हीरोइन तो क्या, कोई हीरो भी मैंने नहीं देखा.
किन्तु एकदिन वह आईं तो सेट के बाहर से ही मुझे बुला भेजा पूछा कि क्या सीन करना है और सीधे मेक अप रूम चली गईं. मैंने ड्राइवर अब्दुल से पूछा क्या बात है, आज मैडम का मूड कुछ बिगड़ा हुआ सा क्यों है? उसने बताया कि सवेरे सवेरे एक हीरोइन के सेक्रेटरी को फट्कार सुना कर आई हैं. मालूम हुआ कि नर्गिस और अन्य कुछ बड़े कलाकारों में एक ऐसी अन्डरस्टैंडिंग है, कि अगर कोई ज़रूरतमन्द इन लोगों में से किसी के पास मदद के लिये आता है तो वह ख़ुद तो अपनी तरफ़ से जो देना होता है, देते ही हैं और एक एक नोट लिख कर बाक़ियों के पास भेज देते हैं. और उस ज़रूरतमन्द का काम बन
जाता है. ऐसे ही कुछ दिन पहले, एक पुरानी चरित्राभिनेत्री अपनी बेटी की शादी के लिये, मदद मांगने नर्गिस के पास आई थी, उन्होने स्वयं जो देन था दिया, और अन्य कई लोगों के लिये चिट्ठी लिख कर दे दी. आज सवेरे वह चरित्राभिनेत्री बेटी की शादी के बाद कुछ मिठाई लेकर शुक्रिया अदा करने आई थी. नर्गिस के पूछ्ने पर उसने बताया कि शादी बहुत अच्छी तरह हो गयी. मदद भी सबने कर दी थी, मगर उक्त सेक्रेटरी ने, उसे उस हीरोइन से मिलने नहीं दिया, जिसके नाम चिट्ठी दी थी. उसने चिट्ठी फाड़कर फेंक दी थी, और बहुत बुरा भला भी कहा था. इसलिये मैडम का मूड ख़राब हो गया था. और
ऐसे मूड में शूटिंग के लिये निकली ही थीं कि आगे मोड़ पर वही सेक्रेटरी साहब खड़े दिखाई दे गये. बस मैडम ने गाड़ी रुकवाई और उतर कर उन सेक्रेटरी साहब पर बरस पड़ीं. बेचारे पब्लिक के सामने शर्मसार होते रहे और माफ़ी मांगते रहे. गालियां तो नर्गिस ऐसी धारा-प्रवाह दे लेती थीं कि तौबा.
बाद में तैयार होकर जब सेट पर आईं तब तक उनका ग़ुस्सा ठंडा हो चुका था. बिल्कुल स्वाभाविक हो चुकी थीं.
यह भी उनकी अभिनय क्षमता की एक बड़ी विशेषता थी, कैसा भी मूड हो, पर कैमरे के सामने आते ही अपने चरित्र में ऐसा ढाल लेती थीं कि बस अपनी मिसाल वह आप ही थीं.
अभिनय में स्वाभाविकता के साथ साथ साज-सिंगार में भी वह स्वाभाविकता और सादगी रखना ही पसन्द करती थीं, जब तक कि चरित्र के लिये बनावट ज़रूरी न हो. इसी सिलसिले में एक दिन उन्होंने घटना सुनाई थी, जो अभी अचानक याद आगयी. बात ए.वी.एम. की फ़िल्म ’चोरी-चोरी’ की है. मद्रास के विजया-वाहुनी स्टूडिओ में फ़िल्म की पहले दिन की शूटिंग थी. नर्गिस अपने लिये निर्धरित मेक-अप रूम में पहुंची तो देखा दो पैडिंग रखे हुए थे, एक वक्ष के लिये, एक नितम्बों के लिये. नर्गिस ने मेक-अप मैन से पूछा - यह किसका है? जवाब मिला- यह आपही के लिये है. नर्गिस ने कहा- ये ले जाओ, मुझे ये सब नहीं पहनना है. मेक-अप मैन ने हाथ जोड़ कर कहा - मैडम, मयप्पन सर ने ऑर्डर किया है, ये आपको पहनने का है. नर्गिस ने कहा - सर को बोलो जाकर, कोई दूसरी हीरोइन बुला लें. मुझे यह फ़िल्म नहीं करनी है. और अन्ततः उन्होंने वह पैडिंग नहीं पहनी.
’रात और दिन’ के बाद उन्होंने काम छोड़ दिया, और पूरी तरह घर गृह्स्थी, बच्चों और समाज सेवा के कामों को समर्पित हो गईं. मगर हम अक्सर, उनके बंगले में ही स्थित ’अजन्ता आर्ट’ के डबिन्ग थियेटर में अपनी अन्य फ़िल्मों की डबिन्ग और साउन्ड इफ़ेक्ट्स रेकार्ड करने जाया करते थे, और उनसे मिल कर ही आते थे. बिना मिले चले आते थे और उनको मालूम हो जाता था तो नाराज़ होती थीं. उनकी वह आत्मीयता कभी नहीं भुलाई जा सकती.
कल पहली जून को उनका जन्मदिन था. वह जीवित होतीं तो कल अस्सी साल की हो गयी होतीं. मगर मेरे मन में आज भी वह उसी रूप में जीवित हैं, जैसा मैने उन्हें देखा और जाना था. और हमेशा ऐसे ही याद करता रहूंगा. श्रद्धा पूर्वक.

1 comment:

निराला said...

govind moonis sir
aapko padhna, apne aap me ek anuthi baat hai. johny waker ke sansmaran bhi aapne jis andaz me likha tha, wah wakai adwitiya tha... please aap samay nikalkar likhte rahiye...

nirala