Friday, June 12, 2009

कहानी चलती का नाम गाड़ी की

एक हमारे अज़ीज़ हैं लल्लन मियाँ. कई फ़िल्मों में हमारे सहकर्मी रह चुके हैं. अकसर जब उनको कोई नई बात सूझती है तो सवेरे सवेरे फोन कर लेते हैं और कोई सवाल दाग़ देते हैं. ऐसे ही एकदिन पूछ बैठे- चलती का नाम गाड़ी की कहानी किसकी थी? सवाल दिलचस्प था. आज उनके उसी सवाल का जवाब लिख रहा हूँ. क्यॊंकि इस कहानी की भी एक अलग कहानी है.
किशोर कुमार ने एक बंगला फ़िल्म बनाई थी - लूकोचुरी. उसके निर्देशक थे कमल मजूमदार. फ़िल्म को बहुत कामयाबी मिली. तब किशोर ने एक हिन्दी फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया. एस.डी.बर्मन के एक सहकारी थे, सुहृद कर. उन्होंने एक कहानी किशोर को सुनाई. कहानी उनको अच्छी लगी, कहानी में तीनों भाइयों के लिये चरित्र थे, मगर उसमें तीनों तीन भाई न थे. निर्देशन का भार कमल मजूमदार को ही देने की बात थी. कहानी क्या थी, यह मुझे नहीं मालूम. फ़िल्म शुरू होने से पहले ही कमल मजूमदार ने कह दिया कि वह निर्देशन न कर सकेंगे. तब किशोर ने सत्येन दा से बात की. सत्येन दा निर्देशन के लिये तो तैयार हो गये, मगर कहानी उनको नहीं जमी. उनका कहना था, कि सारे लोग जानते हैं कि तीनों अभिनेता भाई हैं, तो फ़िल्म में भी भाई-भाई ही क्यों न हों? और तीनों जैसे हैं वैसे ही चरित्र अदा करें तो फ़िल्म दिलचस्प बन सकती है. आइडिया सबको अच्छा लगा. गाड़ियों के गैरेज का आइडिया पहली कहानी में भी था, उसी गैरेज को केन्द्र बना कर कहानी का ताना बाना बुना गया. उसमें कुछ कुछ अवदान अशोक कुमार का था, कुछ किशोर का और बाकी बुनावट सत्येन दा की. वह इन तीनों भाइयों से बहुत ही अच्छी तरह वाकिफ़ थे, इसलिये सबके चरित्र बहुत ही वास्तविक और स्वाभाविक बन गये. और फ़िल्म शुरू हो गई. पहले फ़िल्म के सम्वाद रमेश पन्त लिखने वाले थे. शुरुवाती शूटिंग के कुछ सीन उन्होंने लिखे भी थे. फिर क्या बात हुई पता नहीं, यह भार मेरे ज़िम्मे आ गया.
फ़िल्म की शूटिंग में जो मज़ा आता था, वह बहुत कम शूटिंगों मे आता है. बिना किसी टेन्शन के बिल्कुल हँसते हँसाते काम हुआ करता था. ब्लैक ऐन्ड व्हाइट फ़िल्मों की शूटिंग मे अपेक्षाकृत अधिक समय लगता था. मगर कोई भी सेट छोड़ कर नहीं जाता था. सम्वादों में भी सेट पर ही चर्चा होती थी और कभी कभी नये सिरे से भी लिखने होते थे. मगर मुझे कोई दिक्क़्त नहीं होती थी, क्योंकि जीते जागते वह चरित्र सामने होते थे.
फ़िल्म के संगीत का भी निस्संदेह उसकी सफलता में बड़ा योगदान था. मजरूह साहब बर्मन दादा और किशोर स्वयं हर गीत को मिल कर सजाते सँवारते थे. फ़िल्म के टाइटिल्स का अनोखा आइडिया भी पूर्णतः किशोर कुमार का था.
अफ़सोस उसका सिक्वेल न बन सका, जैसा कि सत्येन दा ने कुछ कुछ सोचा था, और जिसमें बनाया जाता तो अमित कुमार हीरो होते, गैरेज तो रह्ता ही रह्ता.
मुझे सचमुच गर्व है जिन चार एवरग्रीन और अमर फ़िल्मों के साथ मेरा नाम जुड़ा है, उनमें से चलती का नाम गाड़ी अन्यतम है.

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