आज एक अर्से बाद कुछ लिखने बैठा हूं. लिखने को तो बहुत कुछ था, कई बातें थीं, कई विचार थे, पर शारीरिक अस्वस्थता के कारण बैठ नहीं पा रहा था. अब सब कुछ लिखूंगा. लेकिन आज पहले कुछ विशेष लिखने जा रहा हूं.
पिछ्ले सप्ताह के कई दिन भोजपुरी फ़िल्में देखने का अवसर मिला. अवसर यों मिला कि ई टीवी –
यू.पी.-बिहार की ओर से एक बहुत बड़ा आयोजन किया जा रहा है – भोजपुरी सिनेमा सम्मान –
२००८, और उसके लिये श्रेष्ठता पुरस्कारों के लिये फ़िल्मों का चयन करने के वास्ते, जिस जूरी को
मनोनीत किया गया था उसका एक सदस्य मैं भी था। अन्य सदस्यों में जाने माने कैमरामैन और फ़िल्म निर्देशक लॉरेन्स डिसूज़ा, कम्प्लीट सिनेमा नामक अंगरेज़ी फ़िल्म ट्रेड मैगज़ीन के वरिष्ठ पत्रकार मोहन जी, अभिनेत्री साधना सिंह एवं कानपुर के एक सम्माननीय भाषविद् पंडित रामचन्द्र दुबे थे.
भोजपुरी सिनेमा का वास्तव में यह तीसरा दौर चल रहा है. पहला दौर शुरू हुआ था, सन-१९६१ में, स्व. बाबू विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी के साहसिक प्रयास “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो” के सफल निर्माण के साथ. उसकी सफलता के बाद तो भोजपुरी फ़िल्मों की एक लहर चल पड़ी थी. पर कुछ ही वर्षों में वह लहर थम गई. कारणों के विश्लेषण में मैं यहां नहीं जाना चाहता. दूसरा दौर शुरू हुआ सन १९७७ में फ़िल्म “दंगल” से. इस दौर में भी कई अच्छी अच्छी और सफल फ़िल्में बनीं और चलीं, पर यह दौर भी कुछ समय में समाप्त हो गया. किन्तु अब यह तीसरा दौर जो शुरू हुआ है, उसने एक स्थायी फ़िल्म उद्योग के रूप में अपने को स्थापित कर लिया है. उनका प्रचार-प्रसार बहुत व्यापक हो गया है. तमाम नये नये बाज़ार मिल गये हैं. अच्छे व्यवसाय के अवसर मिल गये हैं. और व्यावसायिक हिन्दी फ़िल्मों में नितान्त बेगानी सी मल्टीप्लेक्स कल्चर और कॉर्पोरेट
विनिवेश के आजाने से हिन्दी फ़िल्मों का स्वरूप ही बदलने लगा है. ऐसे में आंचलिक फ़िल्मों के लिये स्वाभविक रूप से एक जगह बन गई है, जहां साधारण दर्शक अपनी संस्कृति, अपने परिवेश,
अपने जीवन से तादात्म्य स्थापित कर सकता है. इसी कारण भोजपुरी फ़िल्मों को अपनी जगह बना
लेने में सफलता मिल रही है. यह एक अच्छा लक्षण है, स्वस्थ लक्षण है. आज तमाम भोजपुरी फ़िल्में बन रही हैं, चल रही हैं. ऐसा भी नहीं है कि सभी फ़िल्में सफल हो रही हों, पर प्रयास तो जारी है. कुछ कमियां भी नज़र आ रही हैं. ऐसे में अगर अच्छे प्रयासों को प्रोत्साहन मिले, सम्मान मिले तो निश्चित रूप से बनाने वालों का हौसला बढ़ेगा, quantity के बजाय quality पर भी ध्यान दिया जाने लगेगा. और इसीलिये इस दिशा में ETV का यह आयोजन पहला आयोजन है और एक सराहनीय और स्वागत योग्य आयोजन है.
इस आयोजन में पुरस्कृत करने के लिये हमने २० फ़िल्में देखीं. इन फ़िल्मों की गुणवत्ता या अच्छाई बुराई की चर्चा करना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है. पुरस्कारों के लिये चयन करते समय हमने देखी हुई फ़िल्मों की व्यावसायिक सफलता असफलता पर ध्यान देने के बजाय उनकी गुणवत्ता, उनके नैतिक
और सामाजिक मूल्यों, उनकी प्रभावोत्पादकता को आंकने का प्रयास ही किया है. और उनके हर
पक्ष पर अत्यन्त सूक्ष्मता से विचार करके, काफ़ी वादविवाद कर के, एक मत हो कर अपना निर्णय ई टीवी के संचालकों के हवाले कर दिया है. इस काम में हम कितना सफल हुये हैं यह तो दर्शक और जन साधारण ही देखेंगे, समझेंगे. किन्तु मेरा विश्वास है कि हमारा निर्णय जनता जनार्दन का मनःपूत होगा. अब मैं केवल सम्मान समारोह के पुरस्कारों के स्वरूप के बारे में कुछ बता देना चाहता हूं. वैसे तो ई टीवी वाले व्यापक प्रचार करेंगे ही- अपने चैनलों तथा अन्य माध्यमों द्वारा भी. मैं थोड़ी जानकारी दे देना चाहता हूं.
यह पुरस्कार दो वर्गों में दिये जायेंगे. पहले वर्ग में जूरी द्वारा श्रेष्ठता के लिये चयनित २० पुरस्कार
हैं. जो अभी गोपनीय ही रखे जायेंगे और जिनकी घोषणा आयोजित समारोह के समय ही की जायेगी. दूसरा वर्ग लोकप्रियता में सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों का है, जिसके हर पुरस्कार के लिये जूरी ने ३-३ नामांकन किये हैं. इस वर्ग में नौ पुरस्कार हैं. और उनमें से सर्वश्रेष्ठ को दर्शकों और जन साधारण के मतदान द्वारा चुना जायेगा. मतदान के लिये ई टीवी द्वारा एक व्यापक अभियान चलाय जायेगा, ताकि अधिक से अधिक लोग इसमें भाग ले सकें.
समारोह का आयोजन जून,२००८ के प्रथमार्ध में (शायद ८ जून को) वाराणसी में किया जायेगा.
तब तक मुझे यह जानने की उत्सुकता बनी रहेगी कि दर्शक गण और जनसाधारण हमारे निर्णय से कितना सहमत होते हैं?
अन्त में केवल एक बात कहना चाहता हूं कि इस आयोजन से प्रोत्साहित होकर भोजपुरी सिनेमा
और भी प्रगति करे, अधिक से अधिक अच्छी फ़िल्में बनें और उनमें हमारी आंचलिक संस्कृति की झलक देखने को मिले और और हिन्दी फ़िल्मों से प्राय: लुप्त हो रही साहित्यिकता पनपे और बढ़े.
यही मेरी आन्तरिक कामना है.
Tuesday, May 20, 2008
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1 comment:
respected Moonisjee
mujhe aapke blog ke baare me aaj hi gyat hua...maine turant aapke blog par visit kiya aur saara post padh dala... aapki Johni walkar aur Shalendrajee wala post aaj ke generation ko bahut inspire karnewala hai...actually that era was feudal era...Samankaal apni tamaam buraiyo ke bavjood bhi morality, devotion, Insaniyat aur vishwas ko bachaye hue tha...tab hi to Johni walkar saheb bina koi ehsan jataye Insaniyat ki sewa karte rahe...Shalendra g was a great poet
aur greatness ka takaza hai ki apne dil me dusare ko bhi space dena chahiye...dusare ke meanigful aur beautiful kaam ko bhi khule dil se tareef karni chahiye...varna vo kalakaar nahi balki baniya kahlayega..mujhe aapse ek request hai ki aap Filmistan ke antim dino ke gawah rahe hai...isliye agar ho sake to Filmistan ke kuchh dilchasp kisse ya koi sundar vakya zaroor likhe...young generation should know abou the era of Studio...
hum Ishwar se prarthana karte hai ki vo aapko happy healthy aur wealthy banaye rakhe...
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