कल श्रावण का पहला सोमवार था.और मुझे याद आ गया ऐसा ही एक श्रावण का सोमवार, जब मैंने बचपन में भाँग खाई थी. मैं शायद आठ साल का था तब. कानपुर में श्रावण के सोमवारों को बारी बारी से चार शिवमन्दिरों मे मेले लगा करते थे. जाजमऊ, नवाबगंज, कल्याणपुर और परमट में. शायद अब भी लगते होंगे. मेरे अभिभावक गौरी शंकर अरोड़ा जिन्हें हम चाचा कहते थे, वह किराना बाज़ार में दलाल थे.
कल्याणपुर में उनके एक आढ़ती जगन्नाथ मुनीम के मालिकों का एक धर्मशाला था. जिस सोमवार को कल्याणपुर के शिवमन्दिर का मेला था, चाचाने हम लोगों को दिन में वहाँ चले जाने को कहा था ,और वह
शाम को आ जानेवाले थे. धर्मशाला में ठहरने की व्यवस्था उन्होंने कर रखी थी. सो दोपहर से पहले ही, मैं अपनी माँ, नानी और छोटी बहन लीला रामलखन मामा के साथ एक इक्के पर बैठ कर वहाँ पहुंच गये. उस समय मेरी उम्र शायद सात आठ साल की रही होगी.
मन्दिर में शिवजी को जल चढ़ाया और धर्मशाले में आकर कुछ फलाहार करके विश्राम किया. सबने उपवास किया हुआ था. शाम होने लगी तो मैं अम्मासे पूछ्कर मेला देखने के लिये निकल पड़ा.
धर्मशाला से बाहर देखा, कुछ लोग बैठे नाश्ता कर रहे थे. और साथ साथ हँस रहे थे. मैं उनको देखने लगा तो उनमें से एक आदमी ने मुझे बरफ़ी का एक टुकड़ा देकर बोला - लेव बच्चा, भोले बाबा का पर्साद लेव. बरफ़ी का रंग कुछ हरा सा था. मैं लेने से हिचकिचा रहा था तो दूसरा व्यक्ति बोला, लै लेव मुन्ना, पर्साद को ना ना करै के चाही. मैंने वह टुकड़ा लेकर माथे से लगाया और खा लिया. फिर एक और व्यक्ति ने एक कुल्हड़ में थोड़ी सी ठंडाई देकर कहा, लेव यहौ पी लेव. ठंडाई मैं जानता था, घर में चाचा भी अक्सर बनाया करते थे. मैंने ठंडाई भी पी ली. और आगे बढ़ गया, मेला देख्नने के लिये. सोच रहा था अगर कोई चीज़ पसन्द आई तो चाचा के आने के बाद उनसे वह चीज़ ले देने को कहूंगा. काफ़ी घूम कर देखा , मगर कुछ ऐसा खा़स नहीं देखा , जो मेरे पास न रहा हो. मैं आगे बढ़ गया. आगे रेल की पटरी थी. मैं दो पटरियों के ठीक बीचोबीच लकड़ी के स्लीपरों पर एक ताल के साथ, लेफ़्ट राइट करता हुआ आगे बढ़ने लगा. ताल पर चलने में बड़ा मज़ा आ रहा था.
थोड़ी दूर ही गया था कि पीछे से रेल की सीटी की आवाज़ सुनाई दी. मैंने मुड़ कर एक बार देखा और फिर आगे चलने लगा. उसके बाद तो सीटी की आवाज़ बार बार आने लगी. मैंने मुड़ कर देख और मन ही मन बुदाया - क्या भों-भों लगा रखी है, इधर उधर इतनी जगह तो पड़ी है, बगल से निकल क्यों नहीं जाता. और फिर आगे बढ़ने लगा. फिर सीटी की आवाज़ बन्द हो गई. मैंने सोचा चलो अच्छा हुआ.
हुआ यह था कि ट्रेन रुक गई थी, और मुसाफ़िर उतर कर दौड़ते हुये मेरी तरफ़ आरहे थे. कुछ लोगों ने आकर मुझे उठा कर पटरी से बाहर किया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर हुआ क्या. इसी समय चाचा सामने आ गये. और उन्होंने वहीं उसी समय मेरी पिटाई शुरू कर दी. चाचा प्यार तो बहुत करते थे, पर ग़लती करने पर मारते भी बहुत थे. दो चार तमाचे मारने के बाद मेरी निगाहें देख कर वह शाय्द कुछ समझ गये. मुझसे पूछा कि मैंने क्या कुछ खाया था? मैंने बर्फ़ी और ठंडाई की बात बतादी.
वह समझ गये कि मुझे किसी ने भाँग खिला दी है. वह मुझे लेकर धर्मशाले तक आये, मगर वह अजनबी लोग तब तक वहाँ से जा चुके थे.
पर उसदिन मेरी समझ में आगया कि भाँग कितना ख़तरनाक नशा है. उसके बाद ज़िन्दगी में शायद ही कभी भोले बाबा का ऐसा प्रसाद ग्रहण किया हो?
एक नसीहत और मिल गयी, कि अनजान व्यक्तियों की दी हुई कोई चीज़ खाना भी कितना खतरनाक हो सकता है?
Tuesday, July 14, 2009
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1 comment:
mama bhang khane ka man to mera bhi hota hai par kya karein mummy se dar lagta hai warna khake zaroor dekhte to hamara bhi ek kissa ho jaata
Rahul
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